एक वृद्ध लंगड़ाते हुए अपनी दुकान की तरफ बढ़े चले जाते थे।थोड़ा हाँफते हुए , थोड़े थोडे अंतराल पर बैठते बैठाते अपना रास्ता नाप लेते थे। उनके भाई का बेटा राजु रोज उनके समानान्तर अपनी बाइक दौड़ाता हुआ निकल जाता था। फिर एक दिन वृद्ध बीमार होकर खटिया पर लेट गए। लगने लगा कि वो बस चंद दिनों के मेहमान है। वृद्ध को अस्पताल में भर्ती करवाने में राजू मुख्य मददगार था। ये बाय और कि उसे तीमारदारी से कोई सरोकार नहीं था। तीन दिनों बाद, वृद्ध दुनिया छोड़ गए। राजू कंधे देने वालों में सबसे आगे था। उसने मृत्यु पश्चात की रस्मों से लेकर भोज तक की सारी व्यवस्थायों में अपनी जी जान लगा दी। आखिर में सभी ने कहा कि राजू जैसे मिलनसार युवा समाज मे विरले ही बचे हैं।
Tuesday, 23 May 2017
Tuesday, 9 May 2017
बिकाऊ बनो
आज का युग भौतिकतावादी मूल्यपरक युग हैं। इस मूल्यपरक युग मे हर वस्तु, यहां तक की मनुष्य भी मूल्य के द्वारा आंका जाता हैं। यूँ तो सदा से ही समाज मे मूल्य निर्धारण होता रहा है। लेकिन वर्तमान में सामाजिक मूल्यों को पूर्णतया नकार कर समाज पूर्णरूपेण मूल्यपरक हो चुके हैं। समाज बाजारू संस्कृति पर संचालित होने लगे हैं, जहां महंगी वस्तु का मतलब अच्छा होने से हैं। यहां समाज का परिप्रेक्ष्य सीमित न होकर पूर्णतया विस्तृत हैं। पूरे देश मे बिकाऊ होना सफलता का मूल सूत्र हो गया हैं। जप बिकने में सफल हो गया, समझो वहीं सच मे चर्चित है, सफल हैं।
आज बिकाऊ होना उतना ही जरूरी हैं, जितना खाने में नमक का होना। यदि आप बिकाऊ हैं, तो समाज को आपसे सरोकार हैं, अन्यथा न जाने कितने ही कुकुरमुत्ते बरसात में उगते है और खत्म हो जाते हैं। लेकिन बिकना भी इतना आसान नहीं है। आज बिकाऊ होने के लिए लगातार मूल्य वृद्धि (वैल्यू एडिशन) की आवश्यकता हैं। नए नवेले बिकाऊओ के लिए तो बिकना और भी मुश्किल हैं। लेकिन जिधर देखो, वहां बिकाऊओ के लिए दलाल तंत्र तैयार हैं। बिकाऊओ का बाजार पूर्णतया तैयार हैं। चाहे आप नौकरी करने के लिए स्वयं को बेचना चाहते हो या शादी के बाजार में, दलाल तंत्र हर जगह मौजूद हैं। आप स्वयं बिक रहे हैं, तो अच्छा हैं अन्यथा आप स्वतः बिक जाएंगे या फिर कबाड़ी माल की तरह खाप जाएंगे।
व्यवसाय या नौकरी के क्षेत्र में, 'बिकाऊ बनो' का एक उज्ज्वल तार्किक पक्ष हैं। आज के समय मे आप को अपने आप को बिकाऊ बनाना ही होगा, अपने अंदर समाज में आवश्यक सफलता के गुणों को समाहित करके। आज इतनी प्रतिस्पर्धा है कि यदि आप कुछ अलग नहीं, तो आपकी परवाह भी किसी को नहीं। व्यवसाय में आज वस्तु नहीं बिकती, वरन उसके साथ व्यापारी को भी बिकना होता हैं।यहां इसका स्पष्टतया अर्थ है कि व्यवसायी को बहुत व्यवहारिक, मधुर व क्रेतान्मुखी (कस्टमर ओरिएंटेड) होना अत्यन्य जरुरी हैं। आज समाज मे इतना दलाल तंत्र है कि आप के बिकाऊ होने में इनका योगदान होने को नकारा ही नहीं जा सकता हैं। कहीं इनका नाम प्लेसमेंट एजेंसी है तो कहीं जॉब ब्यूरो, लेकिन ये प्रभु समान सर्वव्याप्त हैं। अतः मूल मंत्र है कि 'बिकाऊ बनो', चाहे अपने बूते पर या फिर दलाल तंत्र की बैसाखियों पर।
शादी के बाजार में भी बिकाऊ दूल्हों की मांग है, जो बिकना नहीं चाहते, उनमे समाज कुछ न कुछ खोट ढूंढ ही लेता हैं। नैतिकता और मूल्यों का स्थान पैसे से भरने की समाजों की कोशिशें लगातार प्रचारित व प्रसारित हो रहीं हैं।परिचय सम्मेलन लगभग हर समाज के फैशन शो हो गए है, हालात यहां भी वहीं है, बिकाऊ माल केवल आयोजक हैं और न बिकने वाले माल की नुमायश एक सम्मेलन से दूसरे सम्मेलन तक हो रही हैं व सिलसिला चला जा रहा हैं। तो अच्छा है कि 'बिकाऊ बनो'।
आज बिकाऊ होना उतना ही जरूरी हैं, जितना खाने में नमक का होना। यदि आप बिकाऊ हैं, तो समाज को आपसे सरोकार हैं, अन्यथा न जाने कितने ही कुकुरमुत्ते बरसात में उगते है और खत्म हो जाते हैं। लेकिन बिकना भी इतना आसान नहीं है। आज बिकाऊ होने के लिए लगातार मूल्य वृद्धि (वैल्यू एडिशन) की आवश्यकता हैं। नए नवेले बिकाऊओ के लिए तो बिकना और भी मुश्किल हैं। लेकिन जिधर देखो, वहां बिकाऊओ के लिए दलाल तंत्र तैयार हैं। बिकाऊओ का बाजार पूर्णतया तैयार हैं। चाहे आप नौकरी करने के लिए स्वयं को बेचना चाहते हो या शादी के बाजार में, दलाल तंत्र हर जगह मौजूद हैं। आप स्वयं बिक रहे हैं, तो अच्छा हैं अन्यथा आप स्वतः बिक जाएंगे या फिर कबाड़ी माल की तरह खाप जाएंगे।
व्यवसाय या नौकरी के क्षेत्र में, 'बिकाऊ बनो' का एक उज्ज्वल तार्किक पक्ष हैं। आज के समय मे आप को अपने आप को बिकाऊ बनाना ही होगा, अपने अंदर समाज में आवश्यक सफलता के गुणों को समाहित करके। आज इतनी प्रतिस्पर्धा है कि यदि आप कुछ अलग नहीं, तो आपकी परवाह भी किसी को नहीं। व्यवसाय में आज वस्तु नहीं बिकती, वरन उसके साथ व्यापारी को भी बिकना होता हैं।यहां इसका स्पष्टतया अर्थ है कि व्यवसायी को बहुत व्यवहारिक, मधुर व क्रेतान्मुखी (कस्टमर ओरिएंटेड) होना अत्यन्य जरुरी हैं। आज समाज मे इतना दलाल तंत्र है कि आप के बिकाऊ होने में इनका योगदान होने को नकारा ही नहीं जा सकता हैं। कहीं इनका नाम प्लेसमेंट एजेंसी है तो कहीं जॉब ब्यूरो, लेकिन ये प्रभु समान सर्वव्याप्त हैं। अतः मूल मंत्र है कि 'बिकाऊ बनो', चाहे अपने बूते पर या फिर दलाल तंत्र की बैसाखियों पर।
शादी के बाजार में भी बिकाऊ दूल्हों की मांग है, जो बिकना नहीं चाहते, उनमे समाज कुछ न कुछ खोट ढूंढ ही लेता हैं। नैतिकता और मूल्यों का स्थान पैसे से भरने की समाजों की कोशिशें लगातार प्रचारित व प्रसारित हो रहीं हैं।परिचय सम्मेलन लगभग हर समाज के फैशन शो हो गए है, हालात यहां भी वहीं है, बिकाऊ माल केवल आयोजक हैं और न बिकने वाले माल की नुमायश एक सम्मेलन से दूसरे सम्मेलन तक हो रही हैं व सिलसिला चला जा रहा हैं। तो अच्छा है कि 'बिकाऊ बनो'।
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