व्यवहार में लचीलापन होना अच्छे व्यक्तित्व की निशानी हैं. देखा भी जाता है की सामान्यतः सीधे खड़े हुए दरख़्त जरा से हवा के झोंकों से जमींदोज हो जाते हैं. वही लचीले वृक्ष सदा फलों से लदे रहते हैं. आज पीढ़ी समागम का अभाव समाज में बहुतायत में दिखाई देता हैं. आज जब समाज सिद्धांतों से विकास की ओर अग्रसर हो रहे हैं, तो पीढ़ी समागम सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक हैं. अन्यथा पीढ़ी समागम का अभाव इस समाज को कुरुक्षेत्र में परिवर्तित कर देगा, जिसमे न जीतने वाला सुखी होगा न ही हारने वाला. अभी हाल में आई हुई फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनिया में भी इसी समस्या का चित्रण किया गया हैं. लेकिन फिल्म होने के नाते इस में पीढ़ी समागम का उपाय इतने सरलता से मिलता दिखाया गया हैं, जिसे पचाना नामुमकिन सा हैं. आज में महाभारत की कहानी को जेहन में दोहराता हूँ तो मुझे उसका मूल कारण धृतराष्ट्र का अंधापन, उसका पुत्र प्रेम, दुर्योधन की महत्वाकांक्षा से ज्यादा भीष्म की दृढ प्रतिज्ञा दिखाई देती हैं. भीष्म के आचरण में कोई भी लचीलापन महाभारत को रोक पाने का सार्थक प्रयास हो सकता था. भीष्म की दृढ प्रतिज्ञा ने, तत्कालीन माहौल के हिसाब से ढल जाने की संभावनायों को नकार कर उन्हें एक जीता जाता लक्खड दरख़्त बना दिया था, जिसका गिरना अवश्यम्भावी था. और उन्ही के साथ उनके संबद्धों का भी पतन अवश्यम्भावी था. अतः परिस्थितियों के अनुरूप ढलकर ही परिस्थितियों का सामना किया जा सकता हैं. समस्याएं तब जन्म लेती है जब दो पक्ष व्यवहार में लचीलापन छोड़कर परिस्थिति की आड़ में आपस में ही दो-दो हाथ करना शुरू कर देते हैं. परिवारों में अलगाववाद की समस्या विकराल रूप ले रही हैं. समाज को लचीलेपन की आवश्यकता को समझना चाहिए. इन्सान की सोच परिस्थितियों से उनकी भिडंत से सीख मात्र हैं, लेकिन उसी को एक मात्र राह मान लेना सरासर गलत हैं. यदि भूतकाल में सीखा गया ज्ञान ही एक मात्र सच होता तो नए विकास की संभावनाएं न जाने कहा खो जाती और शायद आज भी हम आदि-पाषाण या पाषाण युग में जी रहे होते. इसीलिए निरंतर नव प्रवर्तन की सोच लेकर लचीलापन धारण करके ही सार्वभौमिक विकास की उम्मीद लगे जा सकती हैं. सभी को अपने भूतकाल के संघर्ष और उन पर विजय पर ख़ुशी रहने या खुश होने का पूरा अधिकार हैं, लेकिन उसकी कीमत किसी और से वसूलने की चाह करना बेमानी हैं. वर्तमान सभी के भूतकाल के प्रयासों का ही फल हैं. साथ ही अपने दृढ नियमों की पालना करते समय हमें दूरदर्शी भी होना चाहिए. ऐसा न हो की आज के हमारे दृढ नियम कल हमारे पैरों की जंजीर न बन जाए. अंतत लचीलापन छोड़ कर हम सुखद होने की कामना नहीं कर सकते हैं. और दृढ प्रतिज्ञ रह कर हम स्वयं को एकाकीपन के घनघोर अंधकार में डालने का काम करेंगे. व्यवहार में लचीलापन ही पीढ़ियों को नयी पीढ़ियों से जोड़ने के गोंद का काम करता हैं. वही लचीलेपन का अभाव पीढ़ियों के मध्य खाई बना सकता हैं जिसका भरना भी शायद ही संभव हो. अतः लचीलापन अपना कर ही हम अपने एवं अपनी भावी पीढ़ियों के सुखद भविष्य की कामना कर सकते हैं.
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