Friday, 21 April 2017

गोवर्धन परिक्रमा : एक अलौकिक यात्रा

गोवर्धन एक जन मानस की आस्था का केंद्र हैं. गोवर्धन ब्रज क्षेत्र में अवस्थित एक छोटी सी पर्वतमाला हैं. इसके बारे में किवंदती है की इसे भगवान श्री कृष्ण ने द्वापरयुग में अपनी बाल लीलाएं करते हुए अपनी छुटकी अंगुली पर उठाकर देवराज इंद्र के दंभ का नाश किया था. कहा जाता है की पांच हजार वर्ष पूर्व यह गोवर्धन पर्वत तीस हजार मीटर ऊंचा होता था, जो पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण तिल तिल घटते हुए आज मात्र तीस मीटर ही ऊंचा रह गया हैं. गोवर्धन के नजदीक का होने के कारण मेरा सदा गोवर्धन जी के लिए के नजदीकी स्थान रहा है. अतः गोवर्धन परिक्रमा में शामिल होने के निमंत्रण मात्र से मेरा मन झूमने लगा था. यूं तो दूरी वश एवं तेज पड़ती गर्मी किसी भी यात्रा के विचार को नेस्तनाबूद करने के लिए पर्याप्त थी, लेकिन गोवर्धन परिक्रमा एक अलौकिक यात्रा का विचार था जो अपने आप पूर्ण होने जा रहा था.

गोवर्धन परिक्रमा को दो भागों में विभाजित किया जाता हैं, जिसके मध्य में गोवर्धन दान घाटी मंदिर है. गोवर्धन दान घाटी से आन्यौर, पूछरी, जतीपुरा होते हुए पुनः गोवर्धन आने की परिक्रमा बड़ी परिक्रमा कहलाती है, जो की लगभग बारह किलोमीटर की होती हैं. वहीँ गोवर्धन से उद्धव कुंड होते हुए राधा कुंड, मानसी गंगा होते हुए पुनः गोवर्धन आने की परिक्रमा छोटी परिक्रमा कहलाती हैं, जो की लगभग नौ किलोमीटर की हैं. वैष्णव संप्रदायी लोग सामान्यतः अपनी परिक्रमा गोवर्धन दान घाटी मंदिर से ना आरम्भ करके, मुखारविन्द जतीपुरा से प्रारंभ करते हुए पुनः जतीपुरा पहुँच कर अपनी परिक्रमा पूर्ण करते हैं, जिसका अनुसरण हमने किया.

आज के समय एक निश्चित तय समय पर इक्कीस लोगों (बच्चों सहित) का एकत्रित होने लगभग नामुमकिन हैं, जो गोवर्धन महाराज की इच्छानुसार पूर्ण हो रहा था. हम सभी परिवारजन श्री अम्बेडकर जयंती के अवसर पर छुट्टी का लाभ उठाते हुए जतीपुरा एकत्रित हो गए. जतीपुरा के मुखारविंद मंदिर के समीप एक रिहायशी ठिकाने को हमने गिरधर नगरी में अपना अस्थायी आशियाना बना लिया. तपती गर्मी के मद्देनजर हमने अपनी गोवर्धन परिक्रमा के आगाज़ का समय सांय आठ बजे का तय किया. तय समयानुसार सांय साढ़े सात बजे मुखारविंद पर आरती में शामिल होने के साथ ही हमने गोवर्धन बाबा, गिरिराज धारण, मुखारविंद, कृष्ण कन्हैया लाल आदि आदि जयकारों के उदघोष के साथ परिक्रमा का शुभारम्भ किया. बच्चों के साथ के कारण हमने एक रिक्शा को अपने साथ ले लिया जिसमे हमने पानी, कपडे वगैरह दुसरे सामान भी रख लिए. श्रद्धानुसार मुझ सहित कुछ परिवारजनों ने नंगे पाँव ही परिक्रमा करना स्वीकार किया. हमारे साथ ही बच्चों का भी परिक्रमा के लिए जोश देखते ही बनता था.

जतीपुरा वल्लभ संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र रहा हैं. श्री वल्लभाचार्य एवं विट्ठल नाथ जी की यहाँ बैठके हैं. यहाँ श्रीनाथजी का प्राचीन मंदिर हैं, जो अब जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं. कहा जाता है की अष्टछाप के महा कवि एवं भक्त शिरोमणि सूरदास यही कीर्तन किया करते थे.
इक्कीस किलोमीटर लम्बी परिक्रमा लगाना अन्य किसी व्यायाम या मैराथन से भी दुष्कर प्रतीत होता हैं और विशेषतः तब जब वह परिवार के साथ की जाए. सबकी शारीरिक क्षमताओं का संतुलन बैठाते हुए लय बनाये रखते हुए परिक्रमा को पूर्णता की ओर ले जाना भी एक कला जैसा हैं. राह में यहाँ वहां अनेकानेक श्रद्धालु दंडवत परिक्रमा भी कर रहे थे, जिनकी श्रद्धा किसी को भी विस्मृत कर सकती हैं. लेकिन यहीं उदाहरण हैं की श्रद्धा की कोई सीमा नहीं होती हैं, और जब श्रद्धा आपके मन में हो तो, कोई भी शारीरिक बंधन आपके आड़े नहीं आ सकता हैं.  इन श्रद्धालुयों का भाव ही था जो हमारे मन में भी जोश भर रहा था.
किलोमीटर दर किलोमीटर, भजन-कीर्तन करते हुए, यदा-कदा बतियाते हुए और समय समय पर जयकारों से जोश भरते हुए हम परिक्रमा पथ पर बढे जा रहे थे.
चूंकि हमने परिक्रमा जतीपुरा से प्रारंभ की थी, तो हमारी बड़ी परिक्रमा जतीपुरा से दानघाटी की हो गयी जो लगभग तेरह किलोमीटर होती हैं.  मध्य में मुख्य पड़ाव, राधाकुंड एवं मानसी गंगा थे. राधाकुंड के बारे में मान्यता है की यहाँ श्री कृष्ण ने अष्ट सखियों संग महारास रचाया था. राधाकुंड के बारे में यह भी कहा जाता है की अगर निस्संतान दंपत्ति यहाँ एक साथ स्नान करें तो उन्हें संतान सुख की प्राप्ति का आशीर्वाद अवश्यम्भावी हैं. राधाकुंड के बगल में ही श्री कृष्ण कुंड है जिसकी बनावट श्री कृष्ण की तरह की बांकी यानि टेढ़ी हैं. राधाकुंड पर हमने भी राधा जी एवं कृष्ण के अगाध प्रेम को याद करते हुए अपनी मनोकामनायों को ह्रदय में दुहराते हुए दीप प्रज्वलन कर पूजा अर्चना की.  
वही मानसी गंगा के बारे में मान्यता है की इसे कृष्ण भगवन ने अपने मन से उत्पन्न किया हैं. किंवदती है की एक बार नन्द बाबा और यशोदा मैया ने गंगा जी की यात्रा का विचार जताया और जाते जाते थक जाने पर श्री कृष्ण ने अपने मन के विचार मात्र से गंगाजी का आवाहन गोवर्धन में कर दिया. यहाँ की गयी मनौती कभी विफल नहीं जाती.
परिक्रमा मार्ग में अन्य पड़ावों में उद्धव कुंड, कुसुम सरोवर इत्यादि भी हैं. जहाँ श्री कृष्ण से साक्षात्कार के साथ की उत्कृष्ट स्थापत्य का नमूना भी देखने को मिलता हैं.
दान घाटी पर रात्रि परिक्रमा के मद्देनजर भगवान की सुन्दर छवि के दर्शन तो संभव नहीं थे अतः हम भगवान को सुमिरते हुए छोटी परिक्रमा की और बढ़ चले. अब कुछ बच्चे गोदियों में चढ़ कर नींद निकालते हुए परिक्रमा पथ पर अग्रेसित थे तो कुछ अभी भी जोश से सरपट दौड़े जा रहे थे. कुछ बच्चे यदा कदा रिक्शा से भी परिक्रमा का लाभ उठा रहे थे. दान घाटी से जतीपुरा की परिक्रमा के मुख्य पड़ाव आन्यौर एवं पूछरी का लौठा हैं. पूछरी के लौठा के बारे में मन जाता है की श्री गोवर्धन का आकार एक मोर के सदृश हैं एवं श्रीराधाकुंड उनकी जीभ एवं श्री कृष्ण कुंड चिवुक हैं , ललिता कुंड ललाट हैं. वही यह पूछरी, नाचते हुए मोर के पंखों – पूँछ के स्थान पर अवस्थित हैं अतः इसका नाम पूछरी हैं. यहाँ यह भी किंवदती है की लौठाजी भगवान श्री कृष्ण के परम मित्र थे, जिन्हें श्री कृष्ण ने मिलने आने का वचन दिया था. और लौठाजी आज भी वही मंदिर में भगवान श्री कृष्ण से मिलने का इन्तजार करते हैं.
पूछरी से आगे चलते हुए, पैर लगभग जवाब देने लगे थे. लेकिन गोवर्धन महाराज की श्रद्धा ही शायद भक्तगणों को आगे खींच रही थी. जतीपुरा पहुँच कर भक्तगणों ने गोवर्धन महाराज को धन्यवाद देते हुए परिक्रमा को विराम दिया. सभी ने विश्राम किया.
परिक्रमा की पूर्णाहुति के रूप में मुखारविंद जतीपुरा पर गोवर्धन महाराज के भोग व विशेष पूजा अर्चना का नियत था. सभी परिवारजनों ने एक साथ गोवर्धन महाराज को दुग्ध स्नान एवं भोग अर्पण किया. गोवर्धन बाबा के जयकारों, भजन कीर्तनो एवं बैंड बाजों के साथ ने इस पूजा को अविस्मरणीय बना दिया. गोवर्धन बाबा से सामीप्य हमारे दिलों में हिलोरें मार रहा था. सभी के चेहरों पर एक अलौकिक चमक प्रत्यक्षतः गोवर्धन महाराज के आशीर्वाद का प्रत्यक्ष अनुभव करा रहा था. गोवर्धन बाबा के प्रसाद को प्राप्त करके हम सभी कृतज्ञ मन से गोवर्धन बाबा को धन्यवाद देते हुए अपनी जिंदगी की उहापोह का सामना करने पुनः निकल पड़े.

Tuesday, 18 April 2017

जन्मदिन की हल्की फुल्की शायरी

जन्मदिन मुबारक हो, आज मेरे यार
खुशियों का अंबार हो, आज तेरे द्वार
हम नहीं पास, ये मलाल हमें यार
पर पाकर sms, बधाई कर लेना स्वीकार
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जश्न जोरों से जरा कर,
            आगाजे जन्मदिन करते हैं हम
लाखों साल तक जियो तुम,
            बस दुआ आज ये करते हैं हम
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दुआ करे क्या तेरे लिए,
             तू दुआ खुदा की हमारे लिए
बस लाखों साल तक तू जिये,
            बस चाह यही अब सदा के लिए
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रवि रश्मि की तरह,
              बढती जाए जिंदगी तेरी यार
सागर की लहरों की तरह,
              बढ़ता जाए अपना प्यार
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Tuesday, 4 April 2017

लचीलापन

व्यवहार में लचीलापन होना अच्छे व्यक्तित्व की निशानी हैं. देखा भी जाता है की सामान्यतः सीधे खड़े हुए दरख़्त जरा से हवा के झोंकों से जमींदोज हो जाते हैं. वही लचीले वृक्ष सदा फलों से लदे रहते हैं. आज पीढ़ी समागम का अभाव समाज में बहुतायत में दिखाई देता हैं. आज जब समाज सिद्धांतों से विकास की ओर अग्रसर हो रहे हैं, तो पीढ़ी समागम सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक हैं. अन्यथा पीढ़ी समागम का अभाव इस समाज को कुरुक्षेत्र में परिवर्तित कर देगा, जिसमे न जीतने वाला सुखी होगा न ही हारने वाला. अभी हाल में आई हुई फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनिया में भी इसी समस्या का चित्रण किया गया हैं. लेकिन फिल्म होने के नाते इस में पीढ़ी समागम का उपाय इतने सरलता से मिलता दिखाया गया हैं, जिसे पचाना नामुमकिन सा हैं. आज में महाभारत की कहानी को जेहन में दोहराता हूँ तो मुझे उसका मूल कारण धृतराष्ट्र का अंधापन, उसका पुत्र प्रेम, दुर्योधन की महत्वाकांक्षा से ज्यादा भीष्म की दृढ प्रतिज्ञा दिखाई देती हैं. भीष्म के आचरण में कोई भी लचीलापन महाभारत को रोक पाने का सार्थक प्रयास हो सकता था. भीष्म की दृढ प्रतिज्ञा ने, तत्कालीन माहौल के हिसाब से ढल जाने की संभावनायों को नकार कर उन्हें एक जीता जाता लक्खड दरख़्त बना दिया था, जिसका गिरना अवश्यम्भावी था. और उन्ही के साथ उनके संबद्धों का भी पतन अवश्यम्भावी था. अतः परिस्थितियों के अनुरूप ढलकर ही परिस्थितियों का सामना किया जा सकता हैं. समस्याएं तब जन्म लेती है जब दो पक्ष व्यवहार में लचीलापन छोड़कर परिस्थिति की आड़ में आपस में ही दो-दो हाथ करना शुरू कर देते हैं. परिवारों में अलगाववाद की समस्या विकराल रूप ले रही हैं. समाज को लचीलेपन की आवश्यकता को समझना चाहिए. इन्सान की सोच परिस्थितियों से उनकी भिडंत से सीख मात्र हैं, लेकिन उसी को एक मात्र राह मान लेना सरासर गलत हैं. यदि भूतकाल में सीखा गया ज्ञान ही एक मात्र सच होता तो नए विकास की संभावनाएं न जाने कहा खो जाती और शायद आज भी हम आदि-पाषाण या पाषाण युग में जी रहे होते. इसीलिए निरंतर नव प्रवर्तन की सोच लेकर लचीलापन धारण करके ही सार्वभौमिक विकास की उम्मीद लगे जा सकती हैं. सभी को अपने भूतकाल के संघर्ष और उन पर विजय पर ख़ुशी रहने या खुश होने का पूरा अधिकार हैं, लेकिन उसकी कीमत किसी और से वसूलने की चाह करना बेमानी हैं. वर्तमान सभी के भूतकाल के प्रयासों का ही फल हैं. साथ ही अपने दृढ नियमों की पालना करते समय हमें दूरदर्शी भी होना चाहिए. ऐसा न हो की आज के हमारे दृढ नियम कल हमारे पैरों की जंजीर न बन जाए. अंतत लचीलापन छोड़ कर हम सुखद होने की कामना नहीं कर सकते हैं. और दृढ प्रतिज्ञ रह कर हम स्वयं को एकाकीपन के घनघोर अंधकार में डालने का काम करेंगे. व्यवहार में लचीलापन ही पीढ़ियों को नयी पीढ़ियों से जोड़ने के गोंद का काम करता हैं. वही लचीलेपन का अभाव पीढ़ियों के मध्य खाई बना सकता हैं जिसका भरना भी शायद ही संभव हो. अतः लचीलापन अपना कर ही हम अपने एवं अपनी भावी पीढ़ियों के सुखद भविष्य की कामना कर सकते हैं.  

संतुलन- the balance

संतुलन व्यवस्था का दूसरा नाम हैं। संतुलन तराजू के दोनों सिरों के एक तल पर होने का भाव हैं। जीवन में भी संतुलन का महत्व हम सभी महसूस करते हैं...